साहेब बंदगी साहेब : साहेब बंदगी साहेब : साहेब बंदगी साहेब : साहेब बंदगी साहेब : साहेब बंदगी साहेब : साहेब बंदगी साहेब : साहेब बंदगी साहेब : साहेब बंदगी साहेब : साहेब बंदगी साहेब : साहेब बंदगी साहेब : साहेब बंदगी साहेब

 Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb   Satguru Kabir Dharmdas Saheb 

अब हम अविगत से चलि आये, कोई भेद मरम न पाये ॥
ना हम जन्मे गर्भ बसेरा, बालक होय दिखलाये।
काशी शहर जलहि बीच डेरा, तहां जुलाहा पाये॥
हते विदेह देह धरि आये, काया कबीर कहाये।
बंश हेत हंसन के कारन, रामानन्द समुझाये॥
ना मोरे गगन धाम कछु नाही, दीसत अगम अपारा।
शब्द स्वरूपी नाम साहब का, सोई नाम हमारा॥
ना हमरे घर मात पिता है, नाहि हमरे घर दासी।
जात जोलाहा नाम धराये, जगत कराये हाँसी॥
ना मोरे हाड़ चाम ना लोहू, हां सतनाम उपासी।
तारन तरन अभय पद दाता, कहैं कबीर अविनाशी॥

आध्यात्मिक जगत में संत शिरोमणि कबीर साहब का नाम लोग बड़ी श्रद्धा एवं आदर से लेते हैं। सत्य, प्रेम, करूणा के साक्षात स्वरुप कबीर महान युगदृष्ट पूर्ण सदगुरू हैं। “सांच ही कहत और सांच ही गहत हो” उनका सीधा, सच्चा स्पष्ट मार्ग है। वे स्वयं अजर, अमर, अविनाशी, शुद्धबुद्ध, मुक्त चेतन स्वरुप होते हुए भी जीवों के कल्याण के लिए मुक्ति का मार्ग दिखाने के लिए अपनी इच्छा से चारों युगों में अलग-अलग नामों से आते रहे हैं। सत्ययुग में सत्य सुकृत, त्रेता में मुनीन्द्र नाम, द्वापर में करूणामय नाम तथा कलियुग में कबीर नाम से अवतरित हुए हैं। “युगनि-युगनि हम आइ चेतावा,’ “अमर लोक से हम चलि आये, आये जगत मझारा हो ”, “जीव दुःखित देख भवसागर, ता कारण पगु धारा हो”, ““कहियत मोहि भयल युगचारी “अब हम अविगत से चलि आये, हते विदेह देह धरि आये, काया कबीर कहाए” आदि उनकी वाणियों से यह तथ्य स्वतःस्पष्ट है। उन्होंने मानव चेतना को सभी प्रकार के भवबंधनों से निकाल कर हिमालय की ऊँचाई प्रदान की है। महापुरूषों का आगमन सदैव संक्रमण काल में विप्लव काल में होता है।
सम्वत्‌ १४५५ में जब कबीर साहब का प्राकट्य इस धरा पर हुआ तो वह समय राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक उथल-पुथल का काल माना जाता है। सर्वत्र अलगाव, भेदभाव, अत्याचार, घृणा-द्वेष की पराकाष्ठा विद्यमान थी। ऐसे कठिन समय में युग नायक की तरह सभी को प्रेम से नहीं माने तो ललकार कर सही राह पर ले आये । सम्पूर्ण जनमानस को आंदोलित करते हुए समाज में समता, एकता स्थापित कर मानव अस्मिता एवं मानव गौरव की रक्षा की । उनकी इसी भूमिका को देखते हुए नाभादास जी ने सटीक रूप से कहा है कि ‘ पक्षपात नहिं वचन सबहि के हित की भाखी’” जब मजहब जुल्म का पर्याय बन गया था, धर्म कायरता का प्रतीक माना जाने लगा था ऐसे समय में लोक आस्था को पटरी पर लाने का महान कार्य कबीर साहब ने ही किया था |

कबीर साहब सभी सन्तों में अद्भुत, बेजोड़ हैं, निराले हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनमें जरा भी उधार नहीं है।
उनके विचार पूर्णतया मौलिक स्वाजुभूति पर आधारित है। उन्होंने किसी लिखा लिखी की बात नही की। सदैव आँखों देखी सांच का ही वर्णन किया है। उन्होंने पहले सत्य को देखा है, जाना है, जिया है, सहा है तभी कहा है। सदगुरू अपना शाख्र स्वयं लेकर आते हैं, किसी शाख्र के मोहताज नहीं होते हैं । वे इन्द्रियातीत, अविनाशी अखण्ड सत्य के दृष्टा हैं। ‘ तन में, मन में , नयन में , उनके रोम-रोम से सत्य ही चरितार्थ होता है।

वे सत्य स्वरूपी हैं। सत्य को बिना लाग लपेट के दो टूक कहने का उनका ढंग निराला है। खरी-खरी कहने में दुनिया में उनका कोई सानी नहीं है। ऐसी निर्भयता, ऐसा अदम्य साहस दुनिया में और किसी का नहीं है।“ मैं तो एक-एक कर जाना”, एक ही सत्य पुरूष की सहज भक्ति को सहज सरल भाषा में लोक कण्ठ तक पहुँचाने का उन्होंने अदभुत कार्य किया है। उनकी विमल वाणी उलटवासियों ने जन सामान्य में ज्ञानाम्नि का चमत्कार पैदा कर दिया था। कबीर साहब चाहते थे कि सभी मनुष्य एक हो, सारी वसुधा एक हो।

उनकी रचना का उद्देश्य मनुष्य को निर्द्रद्र, कोलाहल शून्य, दुख रहित जीवन की अनुभूति कराना है। चार दाग से न्यारे कबीर साहब की कथनी-करनी, रहनी-गहनी, आचार-विचार में कोई भेद नहीं था, आचार-विचार की शुद्धता के कारण ही उन्होंने शरीर रूपी चादर को ज्यों का त्यों धर दिया था। इसीलिये उनकी वाणी में इतना ओज है और विश्वसनीयता है। “मैं रोऊँ इस जगत को ”” सारे संसार की पीड़ा उनकी निज की पीड़ा बन गयी थी । सामाजिक कुरीतियों , अन्धविश्वास, अधर्म और पाखण्ड के जाल से निकालकर मानव को स्वस्थ आधार भूमि प्रदान की थी, जिससे समाज में मानव अपने दिलों में घ्रणा की जगह प्रेम, हिंसा की जगह अहिंसा, भेद
की जगह अभेद और विषमता की जगह समता के मार्ग पर निर्विध्न रूप से चलकर अपने जीवन को सार्थक बना सके | महान विचारक ओशो ने कहा है कि “मनुष्य जाति के इतिहास में कबीर के सूत्र का कोई मुकाबला नहीं है। इतने सरल और सीधे, साफ और स्पष्ट वचन पृथ्वी पर कभी बोले नहीं गये हैं कबीर का एक-एक वचन हजारों शास्त्रों का सार है। गीता होगी कितनी भी कीमती लेकिन कबीर के एक शब्द में समा जाय।”” आज भारत का कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसकी जुबान पर कबीर की कोई रचना न हो।